माँ बनना दुनिया का सबसे बड़ा सुख होता है। कहा जाता है कि प्रसव पीड़ा के भयानक दर्द से गुज़र रही माँ की आँख के आँसू भी मुस्कान में बदल जाते हैं, जिस वक्त वो अपनी संतान को गोद में लेती है। यही कारण है कि उस संतान को यदि कोई कष्ट हो तो सबसे ज़्यादा माँ ही विचलित होती है। कुछ इसी प्रकार के भावों व विचारों को मालबिका मुखर्जी जी ने अपनी पुस्तक “मेरे निराश्रित देवता” में उजागर किया है। यह कोई काल्पनिक गणना नहीं बल्कि मालबिका जी की अपनी स्वंय आपबीती है। इस पुस्तक का प्रकाशन ऑनलाइन गाथा पब्लिकेशन द्वारा किया गया है। बंगला भाषा में लिखी गई इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद श्रीमती पापिया बनर्जी द्वारा किया गया है।
“मेरे निराश्रित देवता” एक ऐसी माँ की आत्मकथा है, जिसकी संतान ऑटिस्टिक है। ऑटिज़्म की बीमारी से जूझ रहे बच्चों के माता-पिता पर क्या गुज़रती है, उसी पीड़ा को मालबिका जी ने बहुत ही ख़ूबसूरत व संजीदा तरीके से पेश किया है। ऐसी माँ को कैसी-कैसी विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, इस पर मालबिका जी ने पूर्ण रूप से प्रकाश डाला है। इसके साथ ही परिवार के अन्य सदस्यों को भी ऐसी सन्तान के लिए नाना प्रकार की समस्याओं और जटिलताओं का सामना करना पड़ता है।
मालबिका मुखर्जी का जन्म झारखण्ड के जमशेदपुर शहर में हुआ था। विवाह के पूर्व मालबिका जी "राष्ट्रीय धातु कर्म प्रयोगशाला" (CSIR) में गवेषक थीं मगर विवाह के बाद भी वो देश-विदेश की कई विभिन्न शिक्षा संस्थान से जुड़ी रहीं। इन सबके साथ-साथ वो इस वक्त बहुत से सामाजिक कल्याणकारी सेवा संस्थानों से भी जुड़ी हुई हैं। लेखन की दुनिया में भी उन्होंने अपनी पहचान बना रखी है। केवल बंगाल ही नहीं बल्कि बंगाल से बाहर भी मालबिका जी विभिन्न पत्रिकाओं की नियमित लेखिका हैं। सांस्कृतिक अनुष्ठानों में वक्ता के रूप में भी उन्हें जाना जाता है।
इस पुस्तक में मालबिका जी ने यह बताया है कि अपने ही रक्त-मांस से गढ़े, तिल-तिल कर बढ़े सन्तान की शारीरिक प्रतिकूलता कभी-कभी माँ को भी पूर्ण रूप से ध्वस्त कर देती है। उस वक्त वह अपने आप को सबसे ज़्यादा असहाय पाती है। ऐसे ही एक अनुभव से प्रेरित होकर मालबिका मुखर्जी ने “मेरे निराश्रित देवता” लिखी है। लेखिका ने अपने ही ऑटिस्टिक सन्तान के जन्म से लेकर बड़े होने तक की कहानी लिखी है। इसके साथ-साथ इन्होंने चिकित्सा जगत की विवेकहीनता, उदासीनता, समाज की इनके प्रति घोर अरुचि को स्पष्ट शब्दों में उजागर किया है।
इस पुस्तक के अलावा ‘आनन्द-बाज़ार पब्लिकेशन’ के ‘उन्नीस-कूड़ी’ (बंगला) में इनकी कई कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। मालबिका जी द्वारा लिखी गई अंग्रेज़ी की भी कविताएं राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की काफी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। मालबिका जी की लिखी अंग्रेज़ी कविताओं की किताब "Kinetic of Life" को भी साहित्य की दुनिया में बहुत सराहा गया और पाठकों द्वारा प्रशंसा भी प्राप्त हुई। विज्ञान की अध्यापिका होते हुए इनकी साहित्य चर्चा और साहित्य के प्रति प्रीति अवश्य ही प्रशंसनीय एवं सराहनीय है।
“मेरे निराश्रित देवता” एक ऐसी माँ के दीर्घ संग्राम की कहानी है जो अपनी ऑटिस्टिक संतान के कारण बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों से गुज़र रही है। इसके अलावा हमारे देश में चिकित्सा के नाम पर जो व्यवसाय हो रहा है, उन सबको भी मालबिका जी ने अपनी पुस्तक में भली-भांति उजागर किया है। समाज के कर्णधारों के दोहरे चरित्र इत्यादि को इन्होंने अत्यन्त सरल एवं सहज भाषा में पाठकों के सामने रखा है। अत्यन्त मर्मस्पर्शी, सत्य घटनाओं पर आधारित इस कहानी को लेखिका ने अपने लेखन कला से एक जीवित दलील का रूप दिया है।